अर्यमा पितरों के स्वामी हैं:– धर्माचार्य ओम प्रकाश पांडे अनिरुद्ध रामानुज दास
प्रतापगढ़ रामानुज आश्रम आश्विन मास पितृपक्ष की सर्वपित्री अमावस्या 2 अक्टूबर को है। जिन व्यक्तियों को अपने पितरों की तिथि मालूम ना हो वह पृतिपक्ष की अमावस्या को श्राद्ध कर सकते हैं। कुछ लोगों ने जिज्ञासा व्यक्त किया है कि हम बाल नाखून इत्यादि को कब कटाएं ,क्योंकि 3 तारीख से नवरात्र प्रारंभ हो जाएगा। इसलिए आप 2 तारीख को क्षौर कर्म तथा नाखून इत्यादिक कटवा सकते हैं, दिन भी बुधवार है। इसी दिन पितृ विसर्जन होना है। कौन हमारे पितर हैं ?
पितृ पक्ष १६ दिन ही क्यों ? क्यों नहीं होते १६ दिन शुभ कार्य ?
कौए,श्वान और गाय को इस पर्व में भोजन देने का क्या महत्त्व है। धर्मशास्त्रों के अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के समीप उर्ध्वभाग जिसे पितृलोक कहते है , में माना जाता है। ये आत्माएं मृत्यु के बाद 1 से लेकर 100 वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में यही निवास करती रहती हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है।यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश।इन चारों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा- अग्निष्वात,( देवताओं के प्रतिनिधि,) सोमसद या सोमपा-(साध्यों के प्रतिनिधि ) तथा बहिर्षद्(-गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि) हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है।माना जाता है चित्रगुप्त के हाथों में हमारे किये गये कर्मो का लेखा जोखा की किताब, कलम, दवात और करवाल हैं। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलता है।जैसा कि हम बता आये कि पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। पुराणों अनुसार मुख्यत: पितरों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात का प्रधान यमराज है।
दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण :-
अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं।
अर्यमा का परिचय :-
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के स्वामी हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। पुराण अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है।
इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़-चेतन मयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का ‘हव्य’ और श्राद्ध में स्वधा का ‘कव्य’ दोनों स्वीकार करते हैं।
पितृ पक्ष और १६ दिन का संयोग :-
पितृपक्ष पूर्णिमा से अमावस्या तक १६ दिन का होता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार हमारी मान्यता है कि प्रत्येक की मृत्यु इन १६ तिथियों को छोड़कर अन्य किसी दिन नहीं होती है। इसीलिए इस पक्ष में १६ दिन होते हैं।
एक मनौवैज्ञानिक पहलू यह है कि इस अवधि में हम अपने पितरों तक अपने भाव पहुंचाते हैं। चूंकि यह पक्ष वर्षाकाल के बाद आता है अत: ऐसा माना जाता है कि आकाश पूरी तरह से साफ हो गया है और हमारी संवेदनाओं और प्रार्थनाओं के आवागमन के लिए मार्ग सुलभ है।
ज्योतिष और धर्मशास्त्र कहते हैं कि पितरों के निमित्त यह काल इसलिए भी श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसमें सूर्य कन्या राशि में रहता है और यह ज्योतिष गणना पितरों के अनुकूल होती है।
श्राद्ध पक्ष भाद्र शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक होता है। इस अवधि में १६ तिथियां होती हैं और इन्हीं तिथियों में प्रत्येक की मृत्यु होती है। सौभाग्यवती स्त्री की मृत्यु पर नियम है कि उनका श्राद्ध नवमी तिथि को करना चाहिए, क्योंकि इस तिथि को श्राद्ध पक्ष में अविधवा नवमी माना गया है।नौ की संख्या भारतीय दर्शन में शुभ मानी गई है। संन्यासियों के श्राद्ध की तिथि द्वादशी मानी जाती है (बारहवीं)। शस्त्र द्वारा मारे गए लोगों की तिथि चतुर्दशी मानी गई है। विधान इस प्रकार भी है कि यदि किसी की मृत्यु का ज्ञान न हो या पितरों की ठीक से जानकारी न हो तो सर्वपितृ अमावस्या के दिन श्राद्ध किया जाए।
क्यों नही होते १६ दिन शुभ कार्य ?
पितृ पक्ष का संबंध मृत्यु से है इस कारण यह अशुभ काल माना जाता है। जैसे अपने परिजन की मृत्यु के पश्चात हम शोकाकुल अवधि में रहते हैं और अपने अन्य शुभ, नियमित, मंगल, व्यावसायिक कार्यों को विराम दे देते हैं, वही भाव पितृपक्ष में भी जुड़ा है।इस अवधि में हम पितरों से और पितर हमसे जुड़े रहते हैं। अत: अन्य शुभ-मांगलिक शुभारंभ जैसे कार्यों को वंचित रखकर हम पितरों के प्रति पूरा सम्मान और एकाग्रता बनाए रखते हैं।अब आखिरी प्रश्न पर आते है कि पितृ पक्ष में कौए-श्वान और गाय को भोजन देने का का क्या महत्व है?
श्राद्ध पक्ष में पितर, ब्राह्मण और परिजनों के अलावा पितरों के निमित्त गाय, श्वान और कौए के लिए ग्रास निकालने की परंपरा है।चूंकि गाय में देवताओं का वास माना गया है, इसलिए गाय का महत्व है। श्वान और कौए पितरों के लिए अन्न वाहक हैं। पितृपक्ष अशुभ होने से अवशिष्ट खाने वाले को ग्रास देने का विधान है। दोनों में से एक भूमिचर है, दूसरा आकाशचर। चर यानी चलने वाला। दोनों गृहस्थों के निकट और सभी जगह पाए जाने वाले हैं। श्वान निकट रहकर सुरक्षा प्रदान करता है और निष्ठावान माना जाता है इसलिए पितृ का प्रतीक है। कौए गृहस्थ और पितृ के बीच श्राद्ध में दिए पिंड और जल के वाहक माने गए हैं।इसीलिए आज आपको श्राद्ध से जुड़ी एक रोचक जानकारी डॉ रमेश शास्त्री जी द्वारा दी गई साझा कर रहे हैं ।एक बार एक भक्त ने एक संत से अचानक प्रश्न किया ,क्या कौओं का शरीर धारण कर हमारे पितर श्राद्ध खानपान आते है, हम महालय में कौआ को भोजन क्यों देते है?वे इतना तुच्छ पक्षी क्यों बनाते है? राजहंस जैसा अच्छा पक्षी नही बन सकते क्या? तमिल में कौए को काका कहते है,क्या दूसरे पक्षी को काका कहते है क्या? दूसरे पक्षियों को ,जानवरों को आवाज से पुकारते है ।जैसे बिल्ली कै म्यांउ,तोते को कि कि का का मतलब है कापतु या मेरी रक्षा करो। इसलिए जब हम भोजन देकर का का पुकारते है ,तो वह अपने पितरों को पुकारते है ताकि वे आपकी रक्षा कर सके।आपने कौए को नीच इसीलिए कहा ,क्योंकि यह सब जगह मिलता है,और सब कुछ खा लेता है।लेकिन इसकी विशेषता भी जाननी चाहिए। यह ब्राह्ममुहूर्त में उठ जाता है,अपनी आवाज से आप सभी को जगाता है।