भगवान परशुराम की पूजा नहीं बल्कि स्तुति करना चाहिए–: धर्माचार्य ओमप्रकाश पांडे अनिरुद्ध रामानुज दास।।

श्रीमते रामानुजाय नमः ।। अक्षय तृतीया एवं भगवान परशुराम के जन्मोत्सव की बहुत-बहुत बधाई बहुत-बहुत मंगल कामनाएं।

उपासना और स्तुति में अन्तर

दुष्टक्षत्रियकुलोत्पन्नान् भूमिपालानेकविंशतिकृत्वः कठोरतरकुठारेण विलूनवन्तं परशुरामं भगवन्तं स्तुवतो निखिलभुवनव्यापियशसो भगवतो रामानुजस्य पादाब्जप्रपदनादनन्तरं तत्प्रभावान्नान्यत्किमपि वक्ति जिह्वा मम; मनश्च मे नान्यत्किमपि विचिन्तयति।।
अर्थात् परशुरामावतारस्तावदहंकारयुक्त- जीवाधिष्ठानाद्धेतोर्मुमुक्षूणामनुपास्य इति स्थितम्; गाथायामस्यां भगवान् रामानुजः परशुरामं स्तौतीति कथनं न दुष्यति; विरोधिनिरसनरूप- महोपकारप्रत्युपकाररूपा सेयं स्तुतिरिति बोध्यम्। तदुपासनं तु निषिद्धमेव, न तदत्राभिहितम् ।
—श्रीरामानुजनूत्तन्दादि, 56

अर्थ

“मेरी जीभ विश्वव्यापी प्रसिद्धिवाले भगवान् रामानुज के कमलचरणों में आश्रय लेने के अतिरिक्त कुछ नहीं बोलती है। जिन्होंने भगवान् परशुराम की प्रशंसा की थी, जिन्होंने इक्कीस बार दुष्ट क्षत्रिय वंश के शासकों को कठिन कुल्हाड़ी से वध किया था। मेरा मन अब स्वामी रामानुज के अतिरिक्त अन्य किसी और के बारे में नहीं सोचता। ”
भावार्थ अर्थात्, यह स्थापित है कि परशुराम के अवतार की पूजा वे लोग करते हैं जो अहंकार युक्त जीव की स्थिति के कारण मुक्ति चाहते हैं; यह कहना गलत नहीं है कि इस गाथा में भगवान रामानुज भगवान परशुराम की स्तुति करते हैं; समझा जाता है कि यह प्रशंसा प्रतिद्वंद्वी की अस्वीकृति के रूप में है- महान लाभ और प्रति-लाभ। उसकी पूजा करना वर्जित है और उसका उल्लेख यहां नहीं किया गया है।
श्रीअमुदनार जी कहते हैं कि स्वामी रामानुज की शरण ग्रहण करने पर अब मैं स्वामी जी के अतिरिक्त कि उस का आश्रयण नहीं करूँगा। वे कहते हैं कि क्षत्रियकुलोत्पन्न दुष्टराजाओं का तीक्ष्णकुठार से इक्कीस बार विनाश करनेवाले परशुराम भगवान् की स्तुति करनेवाले, परमपवित्र एवं भूतलव्यापि यशवाले श्रीरामानुज स्वामी जी का आश्रय लेने पर, अब से मेरी वाणी दूसरे किसी का नाम नहीं लेगी; मेरा मन चिंतन नहीं करेगा।


तात्पर्य यह कि हमारे आचार्यों का सिद्धान्त है कि परशुराम हमें उपासना करने योग्य नहीं; क्योंकि वह तो दुष्टक्षत्रिय निरासरूप विशेष कार्य सिद्धि के लिए अहंकारयुत किसी जीव में भगवान् की शक्ति का आवेशमात्र हैं। अत एव उसे आवेशावतार कहते हैं; न कि श्रीरामकृष्णादिवत् पूर्णावतार। प्रकृतगाथा में इतना ही कहा गया है कि श्रीरामानुज स्वामी जी उनकी स्तुति करते हैं, नतु उपासना । विरोधिनिरासरूप महोपकार का स्मरण करते हुए उनकी स्तुति करने में कोई आपत्ति नहीं हैं; क्योंकि यह उपासना नहीं हो सकती । यही उपासना और स्तुति में अन्तर है।


धर्माचार्य ओमप्रकाश पांडे अनिरुद्ध रामानुज दास
साभार रमेशप्रपन्नाचार्य

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