जानिए, ‘अग्निपथ’ योजना बनाने के लिए लगी कितनी मेहनत

सेना के भीतर सैनिकों की औसत आयु कम करने के दिशा में उठाए गए बड़े कदम के रूप में ‘अग्निपथ’ योजना को लाया गया है जिसके पीछे पीएम मोदी के नेतृत्व में वर्तमान केंद्र सरकार ने खूब पसीना बहाया है। आज इस योजना को लेकर जो स्वर मुखर हो रहे हैं, वे यदि इस योजना के पीछे लगी सरकार और सेना की मेहनत के बारे में जान लें तो फिर स्वयं ही शांत हो जाएंगे। आइए विस्तार से जानते हैं इसके बारे में…

कैसे ‘अग्निपथ’ योजना बनी एक मात्र हल ?

दरअसल, सेना ने इस पायलट प्रोजेक्ट को ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ के तहत 254 बैठकों में 750 घंटे तक मंथन करके तैयार किया है। यह भी सच है कि देश की सैन्य भर्ती नीति ‘अग्निपथ’ को लागू करने के लिए हमें लंबा इंतजार करना पड़ा है। वास्तविकता यह है कि 1989 में पहली बार भारतीय सैनिकों की बढ़ती उम्र को देखते हुए सेना में औसत आयु कम करने पर ध्यान केंद्रित किया गया था। दरअसल, उस समय असली समस्या 1963-67 के बीच हुई सैनिकों की भर्ती बनी थी, क्योंकि सरकार ने 1965 से पहले जवानों के सेवानिवृत्त होने की उम्र सात साल से बढ़ाकर 17 साल जो कर दी थी। इस वजह से न केवल सेना में वृद्ध जवानों का अनुपात बढ़ गया था, बल्कि हर साल सेवानिवृत्त होने वाले सैनिकों की संख्या भी बढ़ गई थी और फिर 80 के दशक में तेजी से सेवानिवृत्ति बढ़ने से सरकार पर अचानक पेंशन का बोझ भी बढ़ गया।

भारतीय सेना के लिए व्यवस्था ठीक करना था जरूरी

इस व्यवस्था को ठीक किया जाना बहुत जरूरी हो गया था। ऐसे में अगर सरकार इसे ठीक नहीं करती तो यह बात तो तय थी कि भारतीय सेना लगातार बूढ़ी होती जाएगी। तब सेना के अधिकारियों ने पहली बार 1985 में सरकार के सामने यह प्रस्ताव रखा। सेना के इस प्रस्ताव में कहा गया कि सेना की लड़ाकू इकाइयों में भर्ती होने वाले लोग आमतौर पर 25 साल की उम्र तक यानि सात साल तक काम करेंगे। साथ ही तकनीकी, कुशल नौकरियों के लिए भर्ती किए गए लोग 55 साल की उम्र तक काम करेंगे। सात साल पूरे करने वाले लड़ाकों में से लगभग आधे को अर्ध-कुशल तकनीकी ग्रेड में ड्राइवरों और रेडियो-ऑपरेटरों के रूप में पुन: सेना में रखा जाएगा।

किसने की सबसे पहले इस पायलट प्रोजेक्ट की बात ?

लेकिन तब सेना का यह पायलट प्रोजेक्ट सरकार के लिए महज एक फाइल बनकर रह गया, जो सिर्फ धूल फांकती रही। सेना के भीतर सैनिकों की औसत आयु घटाने के लिए 1980 के दशक में बने इस प्रोजेक्ट की फाइल फिर से 2019 में बाहर आई और इस पर 2020 में काम शुरू हुआ। तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवणे ने सबसे पहले सैन्य भर्ती के लिए इस पायलट प्रोजेक्ट के बारे में बात की, जिसे उन्होंने ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ का नया नाम दिया। यह योजना शुरू में सिर्फ 100 अधिकारी और 1,000 सैनिकों के लिए थी। बाद में विभिन्न रक्षा प्रतिष्ठानों के वरिष्ठ अधिकारियों ने इस योजना पर विस्तार से चर्चा शुरू की।

‘टूर ऑफ ड्यूटी’ प्रोजेक्ट पर हुआ विचार

जनरल नरवणे का तर्क था कि कई बार स्कूलों और कॉलेजों के दौरे पर सैन्य अधिकारियों को ऐसे छात्र मिल जाते हैं, जो पूर्ण करियर अपनाने से हटकर सैनिकों के जीवन के बारे में जानने को उत्सुक रहते हैं। इस पर उनका कहना था कि क्या हम थोड़े समय के लिए अपने युवाओं को यह अनुभव करने का अवसर दे सकते हैं कि सेना का जीवन कैसा होता है? उनके ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ पायलट प्रोजेक्ट में कहा गया कि क्या हम 6-9 महीने का संक्षिप्त प्रशिक्षण देने के बाद चार साल के लिए एक हजार युवाओं को सेना में शामिल कर सकते हैं। शुरुआत में ‘टूर ऑफ ड्यूटी’ पर्यटन की तरह अधिक था, जहां लोग एक सीमित अवधि के लिए आते थे और सेना के जीवन का अनुभव लेने के बाद वापस चले जाते थे।

पायलट प्रोजेक्ट के लिए इन-हाउस कॉन्सेप्ट पेपर किया था तैयार

सेना ने इस पायलट प्रोजेक्ट के लिए पूरी तरह से इन-हाउस कॉन्सेप्ट पेपर तैयार किया था, जिसके पक्ष में तत्कालीन सेना प्रमुख थे लेकिन तत्कालीन चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत ने इस योजना का विरोध किया था। जनरल रावत का कहना था कि एक सैनिक को तैयार करने के लिए उस पर एक साल के प्रशिक्षण में होने वाला खर्च महंगा होता है और बाद में उसे चार साल बाद खोना ठीक नहीं है। इस योजना के बारे में सबसे पहले अधिकारियों के लिए सोचा गया था, क्योंकि सेना को लगा कि वह उस कमी को पूरा करने में सक्षम होगी, जिसका वह सामना कर रही है।

रक्षा बजट पर लगातार बढ़ रहा था पेंशन बिल का बोझ

हालांकि, शुरू में जनरल रावत ने इस योजना का विरोध किया लेकिन बाद में उन्होंने इसे अधिकारी पद से बदलकर कार्मिक से नीचे अधिकारी रैंक की भर्ती में बदल दिया। बता दें, मौजूदा समय में एक भारतीय सैनिक की औसत आयु 32 वर्ष है, जबकि सेना ‘अग्निपथ’ योजना के माध्यम से इसे 26 वर्ष तक लाना चाह रही है। अब इससे भारतीय सेना जवान होगी। ज्ञात हो, मौजूदा भर्ती प्रक्रिया को बदलने के लिए इस प्रोजेक्ट पर 750 घंटे तक कुल 254 बैठकों में सैन्य भर्ती नीति ‘अग्निपथ’ को लेकर विचार-विमर्श चला।

अग्निपथ योजना पर हुई कुल 254 बैठकें, 750 घंटे तक किया गया मंथन

इस योजना के बारे में लेफ्टिनेंट जनरल अनिल पुरी ने कहा कि अग्निपथ योजना पर सेवाओं और सरकार के भीतर विभिन्न स्तरों पर विस्तृत चर्चा हुई है। तीनों सेनाओं के भीतर 150 बैठकें हुईं जो कुल 500 घंटे थीं। इसके अलावा रक्षा मंत्रालय में 150 घंटे तक 60 बैठकें और पूरे सरकारी ढांचे के तहत 44 बैठकें 100 घंटे तक हुईं। कुल 254 बैठकों में 750 घंटे तक मंथन किए जाने के बाद अग्निपथ योजना को लाया गया। इस योजना को लेकर पूरी नीति पर कई स्तरों पर विस्तार से चर्चा की गई और कई मुद्दों को खारिज कर दिया गया है। एनएसए अजीत डोभाल और लेफ्टिनेंट जनरल पुरी पहले ही ये स्पष्ट कर चुके हैं कि अग्निपथ योजना को वापस नहीं लिया जाएगा। इस प्रकार इस योजना पर केंद्र सरकार और सेनाओं ने मिलकर दिन रात मेहनत की है ताकि राष्ट्रहित में यह बड़ा कार्य किया जा सके।

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