शैव परंपरा का तिलक है त्रिपुंड्र:- धर्माचार्य ओम प्रकाश पांडे अनिरुद्ध रामानुज दास
प्रतापगढ़ श्री वैष्णव उर्ध्व पुंण्ॾ तिलक लगाते हैं। दो सफेद मस्तिष्क पर ऊपर जाती हुई आकृति भगवान के श्री चरणों की प्रतीक है। उनके मध्य में श्री जो लक्ष्मी जी की प्रतीक है, नाक के ऊपर लगा हुआ चंदन भगवान के श्री चरणों के नीचे का आसन स्वरूप है। तमाम लोगों को यह भ्रांतियां होती हैं कि यह त्रिपुंड्र है। आज जेष्ठ मास की त्रयोदशी है। भगवान आशुतोष के पूजन का सुअवसर है। जो शैव हैं वह त्रिपुंड्र लगाते हैं। आइए त्रिपुंड्र के विषय में विशेष रुप से जानकारी प्राप्त करें ।
शिवलिंग पर बने त्रिपुण्ड्र की तीन रेखाओं का रहस्य ……
शैव परम्परा का तिलक है त्रिपुण्ड्र । यह कितना बड़ा होना चाहिए ? कैसे लगाना चाहिए ? त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाओं का क्या रहस्य है ?
प्राय: साधु-सन्तों और विभिन्न पंथों के अनुयायियों के माथे पर अलग-अलग तरह के तिलक दिखाई देते हैं । तिलक विभिन्न सम्प्रदाय, अखाड़ों और पंथों की पहचान होते हैं । हिन्दू धर्म में संतों के जितने मत, पंथ और सम्प्रदाय है उन सबके तिलक भी अलग-अलग हैं । अपने-अपने इष्ट के अनुसार लोग तरह-तरह के तिलक लगाते हैं ।
शैव परम्परा का तिलक कहलाता है त्रिपुण्ड्र…..
भगवान शिव के मस्तक पर और शिवलिंग पर सफेद चंदन या भस्म से लगाई गई तीन आड़ी रेखाएं त्रिपुण्ड्र कहलाती हैं । ये भगवान शिव के श्रृंगार का हिस्सा हैं । शैव परम्परा में शैव संन्यासी ललाट पर चंदन या भस्म से तीन आड़ी रेखा त्रिपुण्ड्र बनाते हैं ।
एक बार सनत्कुमारों ने भगवान कालाग्निरुद्र से पूछा……
· त्रिपुण्ड्र कितना बड़ा होना चाहिए ?
· कैसे लगाना चाहिए ?
· त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाओं का क्या रहस्य है ?
भगवान कालाग्निरुद्र बोले……
बीच की तीन अंगुलियों से भस्म लेकर भक्तिपूर्वक ललाट में त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिए । ललाट से लेकर नेत्रपर्यन्त और मस्तक से लेकर भौंहों (भ्रकुटी) तक त्रिपुण्ड्र लगाया जाता है । त्रिपुण्ड्र बायें नेत्र से दायें नेत्र तक ही लम्बा होना चाहिए । त्रिपुण्ड्र की रेखाएं बहुत लम्बी होने पर तप को और छोटी होने पर आयु को कम करती हैं । भस्म मध्याह्न से पहले जल मिला कर, मध्याह्न में चंदन मिलाकर और सायंकाल सूखी भस्म ही त्रिपुण्ड्र रूप में लगानी चाहिए ।
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क्या है त्रिपुण्ड्र की तीन आड़ी रेखाओं का रहस्य …….
त्रिपुण्ड्र की तीनों रेखाओं में से प्रत्येक के नौ-नौ देवता हैं, जो सभी अंगों में स्थित हैं ।
▪️ पहली रेखा—गार्हपत्य अग्नि, प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, रजोगुण, पृथ्वी, धर्म, क्रियाशक्ति, ऋग्वेद, प्रात:कालीन हवन और महादेव—ये त्रिपुण्ड्र की प्रथम रेखा के नौ देवता हैं ।
▪️ दूसरी रेखा— दक्षिणाग्नि, प्रणव का दूसरा अक्षर उकार, सत्वगुण, आकाश, अन्तरात्मा, इच्छाशक्ति, यजुर्वेद, मध्याह्न के हवन और महेश्वर—ये दूसरी रेखा के नौ देवता हैं ।
▪️ तीसरी रेखा—आहवनीय अग्नि, प्रणव का तीसरा अक्षर मकार, तमोगुण, स्वर्गलोक, परमात्मा, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तीसरे हवन और शिव—ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं ।
शरीर के बत्तीस, सोलह, आठ या पांच स्थानों पर त्रिपुण्ड्र लगाया जाता है ।
त्रिपुण्ड्र लगाने के बत्तीस स्थान…..
मस्तक, ललाट, दोनों कान, दोनों नेत्र, दोनों नाक, मुख, कण्ठ, दोनों हाथ, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, दोनों पार्श्व भाग, नाभि, दोनों अण्डकोष, दोनों उरु, दोनों गुल्फ, दोनों घुटने, दोनों पिंडली और दोनों पैर ।
त्रिपुण्ड्र लगाने के सोलह स्थान……….
मस्तक, ललाट, कण्ठ, दोनों कंधों, दोनों भुजाओं, दोनों कोहनी, दोनों कलाई, हृदय, नाभि, दोनों पसलियों, तथा पृष्ठभाग में ।
त्रिपुण्ड्र लगाने के आठ स्थान…….
गुह्य स्थान, ललाट, दोनों कान, दोनों कंधे, हृदय, और नाभि ।
त्रिपुण्ड्र लगाने के पांच स्थान……
मस्तक, दोनों भुजायें, हृदय और नाभि ।
इन सम्पूर्ण अंगों में स्थान देवता बताये गये हैं उनका नाम लेकर त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिए ।
त्रिपुण्ड्र धारण करने का फल…….
इस प्रकार जो कोई भी मनुष्य भस्म का त्रिपुण्ड करता है वह छोटे-बड़े सभी पापों से मुक्त होकर परम पवित्र हो जाता है ।
उसे सब तीर्थों में स्नान का फल मिल जाता है ।
त्रिपुण्ड्र भोग और मोक्ष को देने वाला है ।
वह सभी रुद्र-मन्त्रों को जपने का अधिकारी होता है ।
वह सब भोगों को भोगता है और मृत्यु के बाद शिव-सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है । उसे पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता है ।
गौरीशंकर तिलक…….
कुछ शिव-भक्त शिवजी का त्रिपुण्ड लगाकर उसके बीच में माता गौरी के लिए रोली का बिन्दु लगाते हैं । इसे वे गौरीशंकर का स्वरूप मानते हैं ।
गौरीशंकर के उपासकों में भी कोई पहले बिन्दु लगाकर फिर त्रिपुण्ड लगाते हैं तो कुछ पहले त्रिपुण्ड लगाकर फिर बिन्दु लगाते हैं ।
जो केवल भगवती के उपासक हैं वे केवल लाल बिन्दु का ही तिलक लगाते हैं ।
शैव परम्परा में अघोरी, कापालिक, तान्त्रिक जैसे पंथ बदल जाने पर तिलक लगाने का तरीका भी बदल जाता है ।
नोट :– यह भगवान त्रंबकेश्वर का स्वरूप है जो नासिक में स्थित है।
