श्राद्ध में कदली फल पितरों को अर्पित करने से पूरे माह तृप्त रहते हैं:– धर्माचार्य ओम प्रकाश पांडे अनिरुद्ध रामानुज दास आचार्य वैभवम् पितृपक्ष व श्राद्ध

श्राद्धकर्म में कदली फल (केला )  प्राशस्त्य  हालांकि अन्त्येष्टिकर्म-श्राद्धप्रकाश के पार्वणश्राद्ध-सामग्रीसूची में कोई प्रमाणवाक्य दिये बिना ही केला का निषेध लिखा है।

श्राद्धचन्द्रिका के भोजनपात्रप्रकरण पृ.२८ में

“न जातीकुसुमानि दद्यान्न कदलीपत्रम्” (अङ्गिरस्) और
“असुराणां कुले जाता रम्भा पूर्वपरिग्रहे।
तस्या दर्शनमात्रेण निराशा: पितरो गता:।।”

(क्रतु) असुरों के कुल में उत्पन्न होने से श्राद्ध में रम्भा यानी केला का निषेध है। श्राद्धकल्पलता के पृ.७३ में श्राद्धचन्द्रिका की ही पंक्तियाँ यथावत् रख दी गई हैं। लेकिन गम्भीरता से अध्ययन मंथन किया जावे तो इस से विपरीत अर्थात् कदली फल की ग्राह्यता ही स्वीकार की गयीं है।

आपके सामने कुछ शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत है –

(१.) जिन श्राद्धचन्द्रिका और श्राद्धकल्पलताकार ने श्राद्ध में कदलीपत्र की निषेधपरक टिप्पणी दी है, वहीं पर मूलवचन देकर उन्होंने इसे वैध भी बताया है “कदलीचूतपनसजम्बुपुन्नागचम्पका:। अलाभे मुख्यपात्राणां ग्राह्या: स्यु: पितृकर्मणि।।” (बोपदेव स्मृतिसंग्रह) स्वर्णादि मुख्य पात्र के अभाव में कदलीपात्र ग्राह्य हैं।
(२.) नृसिंहप्रसाद ने श्राद्धसार के पृ.१२० में “असुराणां कुले जाता जाती पूर्वपरिग्रहे। तस्या दर्शनमात्रेण निराशा: पितरो गता:।।” ‘रम्भा’ के स्थान में ‘जाती’ पुष्प का वैकल्पिक निषेध लिखा है, केला का नहीं। एक ही श्लोक के दो पाठभेद हैं। वहीं पृ.५१ में “लकुचं मोचमेव च” मोच यानी केला को श्राद्ध में प्रशस्त बताया है।
(३.) पितृकर्मनिर्णय पृ.१०६ में “लोचै: समोचैर्लकुचै: ….. दत्तेषु मासं प्रीयन्ते श्राद्धेषु पितरो नृणाम्।।” श्राद्ध में मोच यानी कदलीफल देने से मासपर्यन्त पितर तृप्त रहते हैं।
(४.) पितृकर्मनिर्णय पृ.१०७ “पनसाम्रनारिकेलकदली ….. फलानि श्राद्धे देयानि” कदलीफल श्राद्ध में देना चाहिये।
(५.) श्राद्धमञ्जरी पृ.३ “कदलीफलानि … श्राद्धे प्रशस्तानि” कदलीफल श्राद्ध में प्रशस्त है।
(६.) श्राद्धमयूख पृ.३२ “कट्फलं काङ्कुणी द्राक्षा लकुचं मोचमेव च” श्राद्ध में मोचफल यानी केला प्रशस्त है।
(७.) स्मृतिमुक्ताफल श्राद्धखण्ड पृ.७८१ “आम्रांश्च कदलीभेदान् ….. श्राद्धकालेऽपि दापयेत्” श्राद्ध में केला देना चाहिये।
(८.) स्मृतिमुक्ताफल श्राद्धखण्ड पृ.७८२ “कदलीजातय: पञ्च ….. श्राद्धे चात्यन्तमुन्नतम्” केला श्राद्ध में अत्यन्त श्रेष्ठ है।
(९.) स्मृतिमुक्ताफल श्राद्धखण्ड पृ.७८२ “कदलीफलानि …. मुन्यन्नानि च श्राद्धे प्रशस्यते” कदलीफल श्राद्ध में प्रशस्त है।
(१०.) स्मृतिमुक्ताफल श्राद्धखण्ड पृ.७८३ “मोचै: …. दत्तैस्तु मासं प्रीयन्ते श्राद्धेषु पितरो नृणाम्” श्राद्ध में केला देने से पितरों को एक मास की तृप्ति होती है।
(११.) श्राद्धक्रियाकौमुदी पृ.१७ “श्राद्धे मोचफलं देयम्” श्राद्ध में मोचफल यानी केला देना चाहिये।
(१२.) वीरमित्रोदय श्राद्धप्रकाश पृ.४२-४३ “लकुचं मोचकं तथा” मोचकफल यानी कदलीफल श्राद्ध में देय है।
(१३.) वीरमित्रोदय श्राद्धप्रकाश पृ.१५६ “कदलीचूत ….. ग्राह्या: स्यु: पितृकर्मणि” श्राद्ध में कदलीपत्र ग्राह्य है।
(१४.) चतुर्वर्गचिन्तामणि परिशेषखण्ड पृ.५५४ “लकुचं मोचमेव च ….. शस्तानि श्राद्धकर्मणि।।” श्राद्धकर्म में मोचफल यानी कदलीफल प्रशस्त है।
(१५.) स्मृतितत्त्वान्तर्गत श्राद्धतत्त्व पृ.२२६ “मोचं-कदलीफलं श्राद्धे शस्तम्” श्राद्ध में कदलीफल प्रशस्त है।
(१६.) निर्णयसिन्धु मूल पृ.३११ में भी श्राद्धचन्द्रिका वाली पंक्तियाँ ही लिखी हैं।
(१७.) धर्मसिन्धु मूल पृ.३०९ “भोजनपात्राणि हेमरौप्यकांस्यजानि वा पलाशकमलकदलीदलमधूकपत्रनिर्मितानि वा” श्राद्ध में कदलीपत्र को प्रशस्त बताया है।
(१८.) कृत्यसारसमुच्चय के हविष्यप्रकरण में निर्णयनिबन्ध का वाक्य है “यत्नपक्वमपि ग्राह्यं कदलीफलमुत्तमम्” पका कदलीफल ग्रहण करना चाहिये।
(१९.) श्राद्धचिन्तामणि (वाचस्पति मिश्र) पृ.६८ पं.८म में “मोरमेव च- मोरं कदलीफलं श्राद्धे देयम्” श्राद्ध में कदलीफल देय है।
(२०.) मिथिला और बङ्गाल आदि में श्राद्ध के लिये कदलीपत्र और कदलीफल की अनिवार्यता है। पद्धतिकारों ने भी लिखा है।
(२१.) धर्मशास्त्र के अनुसार श्राद्ध में केला के पुष्प का निषेध है।

धर्माचार्य ओम प्रकाश पांडे अनिरुद्ध रामानुजदास रामानुज आश्रम प्रतापगढ़

साभार रमेश शास्त्री जी

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